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ये और बात दूर रहे मंज़िलों से हम - आलोक श्रीवास्तव कविता - Darsaal

ये और बात दूर रहे मंज़िलों से हम

ये और बात दूर रहे मंज़िलों से हम

बच कर चले हमेशा मगर क़ाफ़िलों से हम

होने को फिर शिकार नई उलझनों से हम

मिलते हैं रोज़ अपने कई दोस्तों से हम

बरसों फ़रेब खाते रहे दूसरों से हम

अपनी समझ में आए बड़ी मुश्किलों से हम

मंज़िल की है तलब तो हमें साथ ले चलो

वाक़िफ़ हैं ख़ूब राह की बारीकियों से हम

जिन के परों से सुब्ह की ख़ुशबू के रंग हैं

बचपन उधार लाए हैं उन तितलियों से हम

गुज़रे हमारे घर की किसी रहगुज़र से वो

पर्दे हटाए देखें उन्हें खिड़कियों से हम

अब तो हमारे बीच कभी दूरियाँ भी हों

तंग आ गए हैं रोज़ की नज़दीकियों से हम

जब भी कहा कि याद हमारी कहाँ उन्हें

पकड़े गए हैं ठीक तभी हिचकियों से हम

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