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वही आँगन वही खिड़की वही दर याद आता है - आलोक श्रीवास्तव कविता - Darsaal

वही आँगन वही खिड़की वही दर याद आता है

वही आँगन वही खिड़की वही दर याद आता है

अकेला जब भी होता हूँ मुझे घर याद आता है

मिरी बे-साख़्ता हिचकी मुझे खुल कर बताती है

तिरे अपनों को गाँव में तो अक्सर याद आता है

जो अपने पास हों उन की कोई क़ीमत नहीं होती

हमारे भाई को ही लो बिछड़ कर याद आता है

सफलता के सफ़र में तो कहाँ फ़ुर्सत कि कुछ सोचें

मगर जब चोट लगती है मुक़द्दर याद आता है

मई और जून की गर्मी बदन से जब टपकती है

नवम्बर याद आता है दिसम्बर याद आता है

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