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मुझे सिरे से पकड़ कर उधेड़ देती है - आलोक श्रीवास्तव कविता - Darsaal

मुझे सिरे से पकड़ कर उधेड़ देती है

मुझे सिरे से पकड़ कर उधेड़ देती है

मैं एक झूट वो सच्चे सुबूत जैसी है

मैं रोज़ रोज़ तबस्सुम में छुपता फिरता हूँ

उदासी है कि मुझे रोज़ ढूँढ लेती है

ज़रूर कुछ तो बनाएगी ज़िंदगी मुझ को

क़दम क़दम पे मिरा इम्तिहान लेती है

जो एक फूल खिला है सहर की पलकों पर

तुम्हारे जिस्म की ख़ुशबू उसी के जैसी है

वो रौशनी जो सितारों का ख़ास ज़ेवर है

अमीक़ आँखों में अक्सर दिखाई देती है

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