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धड़कते साँस लेते रुकते चलते मैं ने देखा है - आलोक श्रीवास्तव कविता - Darsaal

धड़कते साँस लेते रुकते चलते मैं ने देखा है

धड़कते साँस लेते रुकते चलते मैं ने देखा है

कोई तो है जिसे अपने में पलते मैं ने देखा है

तुम्हारे ख़ून से मेरी रगों में ख़्वाब रौशन है

तुम्हारी आदतों में ख़ुद को ढलते मैं ने देखा है

न जाने कौन है जो ख़्वाब में आवाज़ देता है

ख़ुद अपने-आप को नींदों में चलते मैं ने देखा है

मेरी ख़ामोशियों में तैरती हैं तेरी आवाज़ें

तिरे सीने में अपना दिल मचलते मैं ने देखा है

बदल जाएगा सब कुछ बादलों से धूप चटख़ेगी

बुझी आँखों में कोई ख़्वाब जलते मैं ने देखा है

मुझे मालूम है उन की दुआएँ साथ चलती हैं

सफ़र की मुश्किलों को हाथ मलते मैं ने देखा है

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