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ख़याल जिन का हमें रोज़-ओ-शब सताता है - आल-ए-अहमद सूरूर कविता - Darsaal

ख़याल जिन का हमें रोज़-ओ-शब सताता है

ख़याल जिन का हमें रोज़-ओ-शब सताता है

कभी उन्हें भी हमारा ख़याल आता है

तुम्हारा इश्क़ जिसे ख़ाक में मिलाता है

इसी की ख़ाक से फिर फूल भी खिलाता है

ढलेगी रात तो फैलेगा नूर भी इस का

चराग़ अपना सर-ए-शाम झिलमिलाता है

न तय हुई तिरी शम्-ए-जमाल से भी जो राह

वहीं पे मेरा जुनूँ रास्ता दिखाता है

न जाने शौक़ को आदत है क्यूँ बहकने की

तिरा हिजाब तो बे-शक अदब सिखाता है

कहाँ बुझाए से बुझते हैं इश्क़ के शोले

चराग़ यूँ तो जो जलता है बुझ भी जाता है

ये बाद-ए-राह-ए-गुज़र दर-ख़ुर-ए-चमन न सही

ग़ुबार का भी ठिकाना निकल ही आता है

जुनूँ की चाल पे ठिटकी न वो नज़र तन्हा

यहाँ ज़माना भी क़दमों में लोट जाता है

है तेरे ग़म की ग़म-ए-रोज़गार से साज़िश

कहाँ कहाँ दिल-ए-दीवाना काम आता है

'सुरूर' जिंस-ए-वफ़ा बेचते नहीं फिरते

जिगर के दाग़ दिखाना तो सब को आता है

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