हर इक जन्नत के रस्ते हो के दोज़ख़ से निकलते हैं
हर इक जन्नत के रस्ते हो के दोज़ख़ से निकलते हैं
उन्हें का हक़ है फूलों पर जो अँगारों पे चलते हैं
हक़ाएक़ उन से टकरा कर नए साँचों में ढलते हैं
बड़े ही सख़्त-जाँ होते हैं जो ख़्वाबों पे पलते हैं
गुमाँ होता है जिन मौजों पे इक नक़्श-ए-हुबाबी का
उन्ही सोई हुई मौजों में कुछ तूफ़ान पलते हैं
वो रात आख़िर हुई तो क्या ये दिन कब रहने वाला है
सितारे माँद होते हैं अगर सूरज भी ढलते हैं
तलव्वुन चश्म-ए-साक़ी में तग़य्युर वज़्-रिंदी में
हमारे मय-कदे में रोज़ पैमाने बदलते हैं
हक़ाएक़ सर्द हो सकते हैं सब मेहराब-ओ-मिम्बर के
मगर वो ख़्वाब जो रिंदों के पैमाने में ढलते हैं
जुनूँ ने आलम-ए-वहशत में जो राहें निकाली हैं
ख़िरद के कारवाँ आख़िर उन्ही राहों पे चलते हैं
'सुरूर'-ए-सादा को यूँ तो लहू रोना ही आता है
मगर इस सादगी में भी बड़े पहलू निकलते हैं
(1822) Peoples Rate This