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ग़ैरत-ए-इश्क़ का ये एक सहारा न गया - आल-ए-अहमद सूरूर कविता - Darsaal

ग़ैरत-ए-इश्क़ का ये एक सहारा न गया

ग़ैरत-ए-इश्क़ का ये एक सहारा न गया

लाख मजबूर हुए उन को पुकारा न गया

क्या लहू रोए तो आया है बहारों का सलाम

सिर्फ़ ख़्वाबों से हक़ाएक़ को सँवारा न गया

मा'रका इश्क़ का सर दे के भी सर हो न सका

कौन राही था जो इस राह में मारा न गया

वो भी वक़्त आता है साक़ी भी बदल जाते हैं

मय-कदे पर कभी मस्तों का इजारा न गया

शौक़ की बात कब अल्फ़ाज़ में ढल सकती थी

उस परी को कभी शीशे में उतारा न गया

कभी टकरा दिए शीशे कभी छलका दिए जाम

राएगाँ एक भी साक़ी का इशारा न गया

आइने जितने भी देखे वो मुकद्दर थे 'सुरूर'

जौहर-ए-सिद्क़-ओ-सफ़ा फिर भी हमारा न गया

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