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टीपू की आवाज़ - आल-ए-अहमद सूरूर कविता - Darsaal

टीपू की आवाज़

गो रात की जबीं से सियाही न धुल सकी

लेकिन मिरा चराग़ बराबर जला किया

जिस से दिलों में अब भी हरारत की है नुमूद

बरसों मिरी लहद से वो शो'ला उठा किया

फीका है जिस के सामने अक्स-ए-जमाल-ए-यार

अज़्म-ए-जवाँ को मैं ने वो ग़ाज़ा अता क्या

मेरे लहू की बूँद में रक़्साँ थीं बिजलियाँ

ख़ाक-ए-दकन को मैं ने शरर आश्ना किया

जिस को भुला सकें न कभी शैख़-ओ-बरहमन

हिन्दोस्तान को वो फ़साना अता किया

साहिल की आँख में मगर आई न कुछ नमी

दरिया में लाख लाख तलातुम हुआ किया

ख़्वाब-ए-गिराँ से ग़ुंचों की आँखें न खिल सकीं

इक शाख़-ए-गुल से नग़्मा बराबर उठा किया

ये बज़्म ऐसी सोई कि जागी न आज तक

फ़ितरत का कारवाँ है कि आगे बढ़ा किया

मारा हुआ हूँ गो ख़लिश-ए-इंतिज़ार का

मुश्ताक़ आज भी हूँ पयाम-ए-बहार का

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