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ज़ंजीर से जुनूँ की ख़लिश कम न हो सकी - आल-ए-अहमद सूरूर कविता - Darsaal

ज़ंजीर से जुनूँ की ख़लिश कम न हो सकी

ज़ंजीर से जुनूँ की ख़लिश कम न हो सकी

भड़की अगर ये आँच तो मद्धम न हो सकी

बदले बहार-ए-लाला-ओ-गुल ने हज़ार रंग

लेकिन जमाल-ए-दोस्त का आलम न हो सकी

क्या क्या ग़ुबार उठाए नज़र के फ़साद ने

इंसानियत की लौ कभी मद्धम न हो सकी

हम लाख बद-मज़ा हुए जाम-ए-हयात से

जीने की प्यास थी कि कभी कम न हो सकी

जो झुक गई जबीं तिरे नक़्श-ए-क़दम की सम्त

ता-ज़ीस्त फिर वो और कहीं ख़म न हो सकी

मुझ से न पूछ अपनी ही तेग़-ए-अदा से पूछ

क्यूँ तेरी चश्म-ए-लुत्फ़ भी मरहम न हो सकी

कितने रुमूज़-ए-शौक़ इन आँखों में रह गए

जिन से निगाह-ए-दोस्त भी महरम न हो सकी

मौज-ए-नसीम अपनी बहारें लुटा गई

लेकिन ख़िज़ाँ की मुर्दा-दिली कम न हो सकी

अल्लाह-रे इश्तियाक़ निगाह-ए-उमीद का

खोए होऊँ की याद में पुर-नम न हो सकी

गुल-कारी-ए-नज़र हो कि रंग-ए-जमाल-ए-दोस्त

कुछ बात थी कि ज़ीस्त जहन्नम न हो सकी

इन की जबीं पे ख़ैर से इक रंग आ गया

मेरी वफ़ा अगरचे मुसल्लम न हो सकी

अपने ही घर की ख़ैर मनाई तमाम उम्र

हम से 'सुरूर' फ़िक्र-ए-दो-आलम न हो सकी

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