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ये दौर मुझ से ख़िरद का वक़ार माँगे है - आल-ए-अहमद सूरूर कविता - Darsaal

ये दौर मुझ से ख़िरद का वक़ार माँगे है

ये दौर मुझ से ख़िरद का वक़ार माँगे है

दिल अब भी शौक़ के लैल-ओ-नहार माँगे है

जहाँ में किस को गवारा हुई है फ़िक्र की धूप

हर इक, कोई शजर-ए-साया-दार माँगे है

ज़बान लाला-ओ-गुल में बसी हुई है मगर

ज़माना लफ़्ज़ में ख़ंजर की धार माँगे है

अकेले-पन का ये एहसास हम-नफ़स की तलाश

बढ़ी हुई जो ये तल्ख़ी है प्यार माँगे है

ये आदमी मिरे ख़्वाबों का साथ क्या देता

हक़ीक़तों से जो अक्सर फ़रार माँगे है

अब इन में अपना लहू हो कि कोई शोख़ किरन

वरक़ जो सादा है नक़्श-ओ-निगार माँगे है

हुआ कहाँ अभी सदियों के जब्र से आज़ाद

ख़ुदाई पर जो बशर इख़्तियार माँगे है

भिकारियों को यहाँ भीक कौन देता है

है सादा-लौह जो दुनिया से प्यार माँगे है

वो दीदा-वर जिसे पहचानती नहीं महफ़िल

तिरी नज़र से फ़क़त ए'तिबार माँगे है

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