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तू पयम्बर सही ये मो'जिज़ा काफ़ी तो नहीं - आल-ए-अहमद सूरूर कविता - Darsaal

तू पयम्बर सही ये मो'जिज़ा काफ़ी तो नहीं

तू पयम्बर सही ये मो'जिज़ा काफ़ी तो नहीं

शाइ'री ज़ीस्त के ज़ख़्मों की तलाफ़ी तो नहीं

साया-ए-गुल में ज़रा देर जो सुसताए हैं

साया-ए-दार से ये वा'दा-ख़िलाफ़ी तो नहीं

अपनी दुनिया से मिली फ़ुर्सत-ए-यक-जस्त हमें

आसमाँ के लिए इक जस्त ही काफ़ी तो नहीं

किसी चढ़ते हुए सूरज की परस्तिश न करो

देख लो इस में कोई शो'बदा-बाफ़ी तो नहीं

तिश्नगी हम को मिली तुम हुए सैराब तो क्या

इन मुक़द्दर की सज़ाओं से मुआ'फ़ी तो नहीं

देव-माला का धुँदलका हो कि ख़्वाबों की किरन

आज की आईना-साज़ी की मुनाफ़ी तो नहीं

ख़्वाब टकराओ हक़ीक़त से कि शो'ले निकलें

इस अँधेरे में दिया एक ही काफ़ी तो नहीं

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