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सियाह रात की सब आज़माइशें मंज़ूर - आल-ए-अहमद सूरूर कविता - Darsaal

सियाह रात की सब आज़माइशें मंज़ूर

सियाह रात की सब आज़माइशें मंज़ूर

किसी सहर के उजाले का आसरा तो मिला

नज़र मिला न सके हम से वो तो ग़म क्या है

कि दिल से दिल के धड़कने का सिलसिला तो मिला

है आज और ही कुछ ज़ुल्फ़-ए-ताबदार में ख़म

भटकने वाले को मंज़िल का रास्ता तो मिला

सरिश्क-ए-चश्म से मोती बहुत लुटाए गए

तिरी निगह के शहीदों को ख़ूँ-बहा तो मिला

जहाँ निगाह से इंसाँ बनाए जाते हैं

वो बाब-ए-मय-कदा मेरे लिए खुला तो मिला

सितम-ज़रीफ़ मोहब्बत को जुर्म कहते हैं

गुनाह-गार को जीने का आसरा तो मिला

न रहनुमा है न मंज़िल दयार-ए-उल्फ़त में

क़दम उठाते ही ख़िज़्र-ए-शिकस्ता-पा तो मिला

मिरे जुनूँ ने खिलाए हैं फूल सहरा में

मिरे जुनूँ से बहारों को हौसला तो मिला

समझते थे कि वफ़ा-ना-शनास है दुनिया

'सुरूर' हम को भी इक दर्द-आश्ना तो मिला

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