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शगुफ़्तगी-ए-दिल-ए-वीराँ में आज आ ही गई - आल-ए-अहमद सूरूर कविता - Darsaal

शगुफ़्तगी-ए-दिल-ए-वीराँ में आज आ ही गई

शगुफ़्तगी-ए-दिल-ए-वीराँ में आज आ ही गई

घटा चमन पे बहारों को ले के छा ही गई

हयात-ए-ताज़ा के ख़तरों से दिल धड़कता था

हवा चली तो कली फिर भी मुस्कुरा ही गई

नक़ाब में भी वो जल्वे न क़ैद हो पाए

किरन दिलों के अँधेरे को जगमगा ही गई

तग़ाफ़ुल एक भरम था ग़ुरूर-ए-जानाँ का

मिरी निगाह-ए-मोहब्बत का रम्ज़ पा ही गई

मुतालबे तो बहुत सख़्त थे ज़माने के

मगर हुक़ूक़-ए-मोहब्बत की याद आ ही गई

मिरे जुनूँ की ख़लिश से अब और क्या होता

सुकूत-ए-अहल-ए-ख़िरद को तो आज़मा ही गई

मता-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र ख़ाक होते होते भी

जहान-ए-हुस्न की कुछ आबरू बढ़ा ही गई

थपक थपक के सुलाया जो तुम ने ज़ौक़-ए-सुख़न

'सुरूर' इस को किसी की नज़र जगा ही गई

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