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नवा-ए-शौक़ में शोरिश भी है क़रार भी है - आल-ए-अहमद सूरूर कविता - Darsaal

नवा-ए-शौक़ में शोरिश भी है क़रार भी है

नवा-ए-शौक़ में शोरिश भी है क़रार भी है

ख़िरद का पास भी ख़्वाबों का कारोबार भी है

हज़ार बार बहारों ने दुख दिया मुझ को

न जाने क्या क्या है बहारों का इंतिज़ार भी है

जहाँ में हो गई ना-हक़ तिरी जफ़ा बदनाम

कुछ अहल-ए-शौक़ को दार-ओ-रसन से प्यार भी है

मिरे लहू में अब इतना भी रंग क्या होता

तराज़-ए-शौक़ में अक्स-ए-रुख़-ए-निगार भी है

मिरे सफ़ीने को साहिल की जुस्तुजू ही नहीं

सितम ये है किसी तूफ़ाँ का इंतिज़ार भी है

चमन ही इक नहीं आईना मेरी मस्ती का

गवाह जोश-ए-जुनूँ की ज़बान-ए-ख़ार भी है

ग़ुरूर-ए-इश्क़ ग़ुरूर-ए-वफ़ा ग़ुरूर-ए-नज़र

'सुरूर' तेरे गुनाहों का कुछ शुमार भी है

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