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ख़्वाबों से यूँ तो रोज़ बहलते रहे हैं हम - आल-ए-अहमद सूरूर कविता - Darsaal

ख़्वाबों से यूँ तो रोज़ बहलते रहे हैं हम

ख़्वाबों से यूँ तो रोज़ बहलते रहे हैं हम

कितनी हक़ीक़तों को बदलते रहे हैं हम

अपने ग़ुबार में भी है वो ज़ौक़-ए-सर-कशी

पामाल हौके अर्श पे चलते रहे हैं हम

सौ सौ तरह से तुझ को सँवारा है हुस्न-ए-दोस्त

सौ सौ तरह से रंग बदलते रहे हैं हम

हर दश्त-ओ-दर में फूल खिलाने के वास्ते

अक्सर तो नोक-ए-ख़ार पे चलते रहे हैं हम

आईन-ए-पासदारी-ए-सहरा न छुट सका

वज़-ए-जुनूँ अगरचे बदलते रहे हैं हम

साक़ी न मुल्तफ़ित हो तो पीना हराम है

प्यासे भी मय-कदे से निकलते रहे हैं हम

कोई ख़लील जिस को न गुलज़ार कर सका

तेरे लिए इस आग पे चलते रहे हैं हम

क्या जाने कब वो सुब्ह-ए-बहाराँ हो जल्वा-गर

दौर-ए-ख़िज़ाँ में जिस से बहलते रहे हैं हम

पुर्सान-ए-हाल कब हुई वो चश्म-ए-बे-नियाज़

जब भी गिरे हैं ख़ुद ही सँभलते रहे हैं हम

साहिल की इशरतों को ख़बर भी न हो सकी

तूफ़ान बन के लाख मचलते रहे हैं हम

तख़्ईल-ए-लाला-कार ये कहती है ऐ 'सुरूर'

कोई ज़मीं हो फूलते-फलते रहे हैं हम

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