ता-मर्ग मुझ से तर्क न होगी कभी नमाज़
पर नश्शा-ए-शराब ने मजबूर कर दिया
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मद्दाह हूँ मैं दिल से मोहम्मद की आल का
सिक्का-ए-दाग़-ए-जुनूँ मिलते जो दौलत माँगता
ओ सितमगर तिरी तलवार का धब्बा छट जाए
शराब पीते हैं तो जागते हैं सारी रात
दर-ब-दर फिरने ने मेरी क़द्र खोई ऐ फ़लक
हम न कहते थे कि सौदा ज़ुल्फ़ का अच्छा नहीं
नमाज़ कैसी कहाँ का रोज़ा अभी मैं शग़्ल-ए-शराब में हूँ
हज़ार जान से साहब निसार हम भी हैं
कुछ ऐसी पिला दे मुझे ऐ पीर-ए-मुग़ाँ आज
ज़ाहिदो कअ'बे की जानिब खींचते हो क्यूँ मुझे
देखिए पार हो किस तरह से बेड़ा अपना
दौर साग़र का चले साक़ी दोबारा एक और