रिंद-मशरब हैं किसी से हमें कुछ काम नहीं
दैर अपना है न काबा न कलीसा अपना
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मय-कशों में न कोई मुझ सा नमाज़ी होगा
हम न कहते थे कि सौदा ज़ुल्फ़ का अच्छा नहीं
बुत-ए-ग़ुंचा-दहन पे निसार हूँ मैं नहीं झूट कुछ इस में ख़ुदा की क़सम
दर-ब-दर फिरने ने मेरी क़द्र खोई ऐ फ़लक
नहीं मुमकिन कि तिरे हुक्म से बाहर मैं हूँ
पाँव फिर होवेंगे और दश्त-ए-मुग़ीलाँ होगा
मुद्दत के बा'द इस ने लिखा मेरे नाम ख़त
ओ सितमगर तिरी तलवार का धब्बा छट जाए
जी चाहता है उस बुत-ए-काफ़िर के इश्क़ में
रक़ीब क़त्ल हुआ उस की तेग़-ए-अबरू से
दौर साग़र का चले साक़ी दोबारा एक और