रक़ीब क़त्ल हुआ उस की तेग़-ए-अबरू से
हराम-ज़ादा था अच्छा हुआ हलाल हुआ
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हमें तो उन की मोहब्बत है कोई कुछ समझे
मय-कशो देर है क्या दौर चले बिस्मिल्लाह
तवाफ़-ए-काबा को क्या जाएँ हज नहीं वाजिब
चाहत ग़म्ज़े जता रही है
ज़ाहिदो कअ'बे की जानिब खींचते हो क्यूँ मुझे
ओ सितमगर तिरी तलवार का धब्बा छट जाए
निगाहों में इक़रार सारे हुए हैं
सनम-परस्ती करूँ तर्क क्यूँकर ऐ वाइ'ज़
जी चाहता है उस बुत-ए-काफ़िर के इश्क़ में
किसी को कोसते क्यूँ हो दुआ अपने लिए माँगो
ख़ुद मज़ेदार तबीअ'त है तो सामाँ कैसा
आँखों पे वो ज़ुल्फ़ आ रही है