ओ सितमगर तिरी तलवार का धब्बा छट जाए
अपने दामन को लहू से मिरे भर जाने दे
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मज़ा है इम्तिहाँ का आज़मा ले जिस का जी चाहे
शिकायत मुझ को दोनों से है नासेह हो कि वाइज़ हो
दौर साग़र का चले साक़ी दोबारा एक और
ज़ाहिदो कअ'बे की जानिब खींचते हो क्यूँ मुझे
किसी को कोसते क्यूँ हो दुआ अपने लिए माँगो
मय-कशो देर है क्या दौर चले बिस्मिल्लाह
निगाहों में इक़रार सारे हुए हैं
चाहत ग़म्ज़े जता रही है
सर्व-क़द लाला-रुख़ ओ ग़ुंचा-दहन याद आया
मद्दाह हूँ मैं दिल से मोहम्मद की आल का
वो कहते हैं उट्ठो सहर हो गई
देखिए पार हो किस तरह से बेड़ा अपना