मय-कशो देर है क्या दौर चले बिस्मिल्लाह
आई है शीशा-ओ-साग़र की तलबगार घटा
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रिंद-मशरब हैं किसी से हमें कुछ काम नहीं
मुद्दत के बा'द इस ने लिखा मेरे नाम ख़त
नुमूद-ए-क़ुदरत-ए-पर्वरदिगार हम भी हैं
शिद्दत-ए-ज़ात ने ये हाल बनाया अपना
सनम-परस्ती करूँ तर्क क्यूँकर ऐ वाइ'ज़
हमें तो उन की मोहब्बत है कोई कुछ समझे
किसी सय्याद की पड़ जाए न चिड़िया पे नज़र
तिरे जलाल से ख़ुर्शीद को ज़वाल हुआ
पाँव फिर होवेंगे और दश्त-ए-मुग़ीलाँ होगा
वो कहते हैं उट्ठो सहर हो गई
सिक्का-ए-दाग़-ए-जुनूँ मिलते जो दौलत माँगता
वादा-ए-बादा-ए-अतहर का भरोसा कब तक