हाथ दोनों मिरी गर्दन में हमाइल कीजे
और ग़ैरों को दिखा दीजे अँगूठा अपना
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मलते हैं हाथ, हाथ लगेंगे अनार कब
दश्त-ए-वहशत-ख़ेज़ में उर्यां है 'आग़ा' आप ही
मुद्दत के बा'द इस ने लिखा मेरे नाम ख़त
मय-कशो देर है क्या दौर चले बिस्मिल्लाह
रिंद-मशरब हैं किसी से हमें कुछ काम नहीं
पाँव फिर होवेंगे और दश्त-ए-मुग़ीलाँ होगा
ख़ुद मज़ेदार तबीअ'त है तो सामाँ कैसा
सिक्का-ए-दाग़-ए-जुनूँ मिलते जो दौलत माँगता
देखो तो एक जा पे ठहरती नहीं नज़र
दिल में तिरे ऐ निगार क्या है
तवाफ़-ए-काबा को क्या जाएँ हज नहीं वाजिब
मय-कशों में न कोई मुझ सा नमाज़ी होगा