देखो तो एक जा पे ठहरती नहीं नज़र
लपका पड़ा है आँख को क्या देख-भाल का
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जी चाहता है उस बुत-ए-काफ़िर के इश्क़ में
पाँव फिर होवेंगे और दश्त-ए-मुग़ीलाँ होगा
हम न कहते थे कि सौदा ज़ुल्फ़ का अच्छा नहीं
चाहत ग़म्ज़े जता रही है
नुमूद-ए-क़ुदरत-ए-पर्वरदिगार हम भी हैं
हाथ दोनों मिरी गर्दन में हमाइल कीजे
हज़ार जान से साहब निसार हम भी हैं
मद्दाह हूँ मैं दिल से मोहम्मद की आल का
मय-कशो देर है क्या दौर चले बिस्मिल्लाह
जुनूँ के हाथ से है इन दिनों गरेबाँ तंग
ता-मर्ग मुझ से तर्क न होगी कभी नमाज़
मय-कशों में न कोई मुझ सा नमाज़ी होगा