वो कहते हैं उट्ठो सहर हो गई

वो कहते हैं उट्ठो सहर हो गई

अज़ाँ हो गई तोप-सर हो गई

गले से मिलो अब तो बहर-ए-ख़ुदा

तड़पते मुझे रात भर हो गई

इलाही हुआ जज़्ब-ए-उल्फ़त को क्या

मिरी आह क्यूँ बे-असर हो गई

ज़माना तो ऐ जान बरगश्ता था

तुम्हारी भी तिरछी नज़र हो गई

हुए सर कटाने को तय्यार हम

जो वाँ तेग़ ज़ेब-ए-कमर हो गई

दिखाई मुझे किस लिए शाम-ए-हिज्र

शब-ए-वस्ल की क्यूँ सहर हो गई

मिला वस्ल में भी न 'आग़ा' को चैन

शिकायत में शब भर बसर हो गई

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