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शिद्दत-ए-ज़ात ने ये हाल बनाया अपना - आग़ा अकबराबादी कविता - Darsaal

शिद्दत-ए-ज़ात ने ये हाल बनाया अपना

शिद्दत-ए-ज़ात ने ये हाल बनाया अपना

जिस्म-ए-मजनूँ में हुआ तंग शलोका अपना

यार बनता नहीं वो नूर का पुतला अपना

ख़ाक में मिल गया तस्ख़ीर का दावा अपना

मय-कशों में न कोई मुझ सा नमाज़ी होगा

दर-ए-मय-ख़ाना पे बिछता है मुसल्ला अपना

वस्ल की रात बहुत तूल हुआ आख़िर-कार

मुख़्तसर ये है कि फ़ैसल हुआ क़िस्सा अपना

गुल खिला कर अभी बुलबुल को जलाऊँ क्या क्या

वो इनायत करें गर पोर का छल्ला अपना

रब्बी-अरेनी की सदा हो भी तो बुत बोल उठें

आप दिखलाएँ अगर दैर में जल्वा अपना

आईना-ख़ाना में चल बैठिए दो-चार घड़ी

देखना होवे जो मंज़ूर तमाशा अपना

जीते-जी ख़्वेश-ओ-अक़ारिब थे पस-ए-मर्ग अफ़सोस

ख़ाक में दाब दिया कोई न समझा अपना

किसी सय्याद की पड़ जाए न चिड़िया पे नज़र

आप सरकाएँ न महरम से दुपट्टा अपना

आप सौ बार उखड़ जाएँ नहीं कुछ पर्वा

जम गया एक परी-ज़ाद से नक़्शा अपना

दाम-ए-महरम में फँसाया है ख़ुदा ख़ैर करे

आशियाना न बना बैठे ये चिड़िया अपना

गर्म-ख़्वाबी ने तिरी ज़ब्ह किया ऐ क़ातिल

एक दम भी न कलेजा हुआ ठंडा अपना

रिंद-मशरब हैं किसी से हमें कुछ काम नहीं

दैर अपना है न काबा न कलीसा अपना

है वही सर वही सौदा वही जोश-ए-वहशत

वस्ल तब्दील हुई रंग न बदला अपना

उन की ज़ुल्फ़ों को ये दावा है कि हम काले हैं

हम ने बचते नहीं देखा कभी मारा अपना

ग़ैर से रखिए न इमदाद की उम्मीद 'आग़ा'

काम आता है मिरी जान भरोसा अपना

(2017) Peoples Rate This

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