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सर्व-क़द लाला-रुख़ ओ ग़ुंचा-दहन याद आया - आग़ा अकबराबादी कविता - Darsaal

सर्व-क़द लाला-रुख़ ओ ग़ुंचा-दहन याद आया

सर्व-क़द लाला-रुख़ ओ ग़ुंचा-दहन याद आया

फिर बहार आई मुझे लुत्फ़-ए-चमन याद आया

गो कि थी सल्तनत-ए-मिस्र मगर आख़िर-ए-कार

इस हुकूमत पे भी यूसुफ़ को वतन याद आया

रग-ए-गुल पर है कभी और कभी ग़ुंचे पे निगाह

बाग़ में किस की कमर किस का दहन याद आया

सफ़र-ए-मुल्क-ए-अदम की हुई ऐसी उजलत

ज़ाद-ए-रह कुछ न ब-जुज़ गोर-ओ-कफ़न याद आया

सोहबत-ए-लाला-रुख़ाँ अहद-ए-शबाब-ओ-शब-ए-वस्ल

मय-ए-कोहना जो मिली दाग़-ए-कुहन याद आया

जब से आया है नज़र ये तिरा हुस्न-ए-बे-दाग़

कब्क को माह न बुलबुल को चमन याद आया

तेरे सौदाई को फिर जोश हुआ वहशत का

क़ैदी-ए-ज़ुल्फ़ को फिर तौक़-ओ-रसन याद आया

पान खा कर जो उगाल आप ने थूका साहब

जौहरी महव हुए लाल-ए-यमन याद आया

ब'अद मुद्दत के तलब आप ने बंदे को किया

शुक्र-सद-शुक्र मैं ऐ मुश्फ़िक़-ए-मन याद आया

फ़स्ल-ए-गुल आते ही 'आग़ा' ने भी वहशत की ली

कैसी ये चाल चला किस का चलन याद आया

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