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नहीं मुमकिन कि तिरे हुक्म से बाहर मैं हूँ - आग़ा अकबराबादी कविता - Darsaal

नहीं मुमकिन कि तिरे हुक्म से बाहर मैं हूँ

नहीं मुमकिन कि तिरे हुक्म से बाहर मैं हूँ

ऐ सनम ताबे-ए-फ़रमान-ए-मुक़द्दर मैं हूँ

दिल तो हैरान है क्यूँ शश्दर-ओ-मुज़्तर मैं हूँ

इश्क़ कहता है कि उस पर्दे के अंदर मैं हूँ

पैरव-ए-सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़-ए-मुअंबर मैं हूँ

तौक़ से उज़्र न ज़ंजीर से बाहर मैं हूँ

आब-रू-ए-सदफ़ ओ ज़ीनत-ए-गोश-ए-महबूब

दुर्र-ए-नायाब जो सुनते हो वो गौहर मैं हूँ

अब सुबुक-दोश मैं हूँ बोझ गले का टल जाए

तेग़-ए-क़ातिल से इलाही कहें बे-सर मैं हूँ

ताएर-ए-क़िबला-नुमा का है इशारा मुझ से

नामा पहुँचाने को परदार कबूतर मैं हूँ

आई फिर फ़स्ल-ए-बहारी मदद ऐ जोश-ए-जुनूँ

दो क़दम चल नहीं सकता हूँ वो लाग़र मैं हूँ

नुत्क़ कहता है कि ईसा मिरा दम भरता है

दहन-ए-यार को दावा है कि कौसर मैं हूँ

जादू बर-हक़ है तो काफ़िर है अयाँ रा-चे-बयाँ

तेरा मारा हुआ ऐ चश्म-ए-फ़ुसूँ-गर मैं हूँ

मोहतसिब को भी हिदायत करूँ मय-नोशी की

वाइज़ा तेरी जगह गर सर-ए-मिंबर मैं हूँ

न उन्हें मेरी शिकायत न मुझे उन का गिला

न कुदूरत उन्हें मुझ से न मुकद्दर मैं हूँ

हैरत-ए-हुस्न से इक सकता का आलम देखा

आईना मुँह को तिरे तकता है शश्दर मैं हूँ

दौर-ए-फ़रहाद गया ये है ज़माना मेरा

बे-सुतूँ अब तो उठाए हुए सर पर मैं हूँ

आज-कल हुस्न-ए-जवानी पे जो है उन को ग़ुरूर

नाज़ कहता है कि अंदाज़ से बाहर मैं हूँ

बर्क़ ओ सीमाब का 'आग़ा' न रहे नाम-ओ-निशाँ

दिल की बेताबी से इक बार जो मुज़्तर मैं हूँ

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