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मलते हैं हाथ, हाथ लगेंगे अनार कब - आग़ा अकबराबादी कविता - Darsaal

मलते हैं हाथ, हाथ लगेंगे अनार कब

मलते हैं हाथ, हाथ लगेंगे अनार कब

जोबन का उन के देखिए होगा उभार कब

उश्शाक़ मुंतज़िर हैं क़यामत कब आएगी

बे-पर्दा मुँह दिखाएगा वो पर्दा-दार कब

इक रोज़ अपनी जान पे हम खेल जाएँगे

तुम पूछते रहोगे यूँही बार बार कब

बेकस को कौन रोए ग़रीबों का कौन है

मेरी लहद पे शम्अ हुई अश्क-बार कब

कौन आया पढ़ते फ़ातिहा किस ने चढ़ाए फूल

मरने के ब'अद पूछता है कोई यार कब

उम्मीद ना-उमीद को उन से नहीं रही

दुश्मन के दोस्त हैं वो हुए मेरे यार कब

जो ऊँचे ऊँचे हैं वही जाते हैं बाम पर

महफ़िल में हम ग़रीबों को मिलता है यार कब

जब नक़्द माल तू ने दिया हम ने नक़्द-ए-दिल

साक़ी हमें बता दे कि पी थी उधार कब

मिलना छुड़ाया तुम से मिरा रश्क-ए-ग़ैर ने

करता है कोई आप से जब्र इख़्तियार कब

'आग़ा' को ज़ब्ह करते हो अपनी गली में क्यूँ

जाएज़ है मेरी जान हरम में शिकार कब

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