न हाथ बाग पर है न पा है रिकाब में
पलट कर देख भर सकती हैं
भेड़ें
बोलना चाहें भी तो बोलेंगी कैसे
हो चुकी हैं सल्ब आवाज़ें कभी की
लौटना मुमकिन नहीं है
सिर्फ़ चलना और चलते रहना है
ख़्वाबों के ग़ार की जानिब
जिस का रस्ता
सुनहरे भेड़ियों के दाँतों से हो कर गुज़रता है
(1995) Peoples Rate This