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गुज़रे जो अपने यारों की सोहबत में चार दिन - ए जी जोश कविता - Darsaal

गुज़रे जो अपने यारों की सोहबत में चार दिन

गुज़रे जो अपने यारों की सोहबत में चार दिन

ऐसा लगा बसर हुए जन्नत में चार दिन

उम्र-ए-ख़िज़र की उस को तमन्ना कभी न हो

इंसान जी सके जो मोहब्बत में चार दिन

जब तक जिए निभाएँगे हम उन से दोस्ती

अपने रहे जो दोस्त मुसीबत में चार दिन

ऐ जान-ए-आरज़ू वो क़यामत से कम न थे

काटे तिरे बग़ैर जो ग़ुर्बत में चार दिन

फिर उम्र भर कभी न सुकूँ पा सका ये दिल

कटने थे जो भी कट गए राहत में चार दिन

जो फ़क़्र में सुरूर है शाही में वो कहाँ

हम भी रहे हैं नश्शा-ए-दौलत में चार दिन

उस आग ने जला के ये दिल राख कर दिया

उठते थे 'जोश' शोले जो वहशत में चार दिन

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